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कविता

जलसाघर

श्रीकांत वर्मा


- यही सोचते हुए गुजर रहा हूँ मैं कि गुजर गई
बगल से
गोली दनाक से।
राहजनी हो या क्रांति? जो भी हो, मुझको
गुजरना ही रहा है
शेष।
देश
नक्शे में
देखता रहा हूँ हर साल नक्शा बदलता है
कच्छ हो या चीन
तब तक
दूसरी गोली दनाक से।

हद हो गई, मुझको कहना ही पड़ेगा, हद कहीं नहीं

चले आओ अंदर
मुझको उघाड़कर
चूतड़ पर बेंत मार
चेहरे पर लिख दो यह गधा है। तब भी जो जहाँ
है, वहीं बँधा है
अपनी बेहयाई को
सँवारता हुआ चौदह पैसे की कंघी से।

चले जाओ
चकले पर, टाट पर, जहन्नुम में, लाट पर,
खुदबुदाते हुए प्रेम, बिलबिलाती हुई इच्छा, हिनहिनाते
हुए क्रोध को मरोड़ दो। क्या होगा? छूँछा
होता हूँ हर बार ताकि और भी मवाद हो।

दाद हो खुजली हो, खाज हो हरेक के लिए
है
मुफीद,
आजमाइए, मथुरा का सूरदास मलहम।
क्या कहा? सांडे का तेल? नहीं, नहीं,
कामातुर स्त्रियाँ, लौट जाएँ, वामाएँ,
मैंने गुजार दी, ऐसे ही, लौट जाएँ
सब अपने-अपने ठिकानों पर
पाप संसार में,
मंत्री अस्तबल में,
पाखंडी गर्भ में,
अफसर जिमखानों में।

वर्षा नहीं होगी, खबरों के अपच से, सब-के-सब मरेंगे
एक राजधानी को छोड़
उठती है मरोड़ अभी से टीका लगवाइए घी का
भाव दूना हो गया है सूना
लगता है लस्सा ही
नहीं रहा।
क्या कहा? नहीं, नहीं मथुरा का सूरदास मलहम
मुफीद है
दाद हो, खुजली हो, खाज हो,
- जिस किसी का राज हो
मुझको मंजूर नहीं किसी की भी शर्त, किसी की दलील
कि उसने मारा मेरे दुश्मन को
कोई मेरा वकील नहीं,
मर्दुमशुमारी के पहले ही मुझे कूच कर जाना है हरेक कूचे से
सब की मतदान पेटियों में
कम होगा एक-एक वोट,
मुझको मंजूर नहीं किसी की शर्त ।

मुझ को गुजरना है भरी हुई भीड़ से, मक्खियों के
झुंड से
एक-एक कर अपने सभी दोस्तों के नजदीक से
ठीक से
चलो कहकर, मुझको धकियाता है, ऊलजुलूल,
आँखें तरेर कर
घेर कर
कहाँ लिए जाते हो मुझ को मेरे विरुद्ध?
छोड़ दो, छोड़ो, छोड़ो वरना! वरना के आगे
कुछ नहीं, बस स्टॉप है जिसका
मुँह
किसी की तरफ नहीं।
मुझे भी बदल दो बस स्टॉप में
छोड़
दिया गया है
मुझे अनंतकाल तक
भटकने
के लिए
इस प्रलाप में

ऑनरेरी सर्जन। कनसल्टेंट, मिलने का समय, पाँच से सात,
मेरा उद्धार करो -
मेरा स्वाद बदल रहा है, रहते-रहते
मैं भी
यहाँ का
हो चला
हो चली
शाम
बदलो, बदलो अपने मिलने का समय, यह समय वह समय
नहीं

दुख, लेन-देन, रह गया माल, दुर्घटना, वेश्या, घेराव,
कम्युनिस्ट पार्टी की जनता, जनसंघ का लोक
किए का शोक, अनकिए का
शोक
छा गया है
खुदाबख्श हिजड़े की बेवजह मौत पर, फौजदारी
कायम हो,
कायम हो, तुम अब तक, वैसे
सच यह है
मैं तुमको पहचान नहीं पाया था अबकी,
जाने कब-कब की उतर रही है
साथ-साथ
छतों से, पलँग से, सीढ़ी से
नीली, पीली, बजी हुई
निगल रही हैं
अंतिम दृश्य को

भविष्य को उँगली पर रखता है ज्योतिषि
बनिया तिजोरी में,
पकड़ा गया था जिस चोरी में
तीन साल पहले अज्ञानसिंह, उस का अब भेद
खुला

खुला-खुला लगता है, वैसे, पर सचमुच
डरा-डरा,
हरा-भरा लगता है, सौवाँ, मैंने क्या
ठेका ले रखा है बाकी निन्यानवे का
फेर
देर वैसे भी हो चुकी, चौसर की तरह
बिछे
नक्शे पर बैठ गया कौवों का प्रसंग। पृथ्वी का
हिसाब
हो रहा है -

मुझको इसी बात पर काँव-काँव करने की छूट दो,
क्षमा करो,
छोड़ दो,
रिहाई को बचा ही क्या अब, एक
और ठंडस्नान,
एक
और मोहभंग
सबकुछ प्रतिकूल था, तब भी संभव किया मैंने
कविता को
और
कुछ अपने आपको,
धन्यवाद!

तोड़ता है यथास्थिति, मनसब नहीं बल्कि
गलत बीज
टूटता है सब कुछ
बस धनुष नहीं टूटता
तौला गया था जो सोने से
क्या होगा रोने से, यह कहकर, जमुहाई
लेती हुई
सोने को जाती है विधवा
जिसे
ठोंकता है दिन-भर
चुंगी का दरोगा, भैंसों का दलाल।

 

देखता है काल या कि देखता भी नहीं है?
मुझको
संदेह है,
इसको सुजाक, उसको मधुमेह है।

 

बार-बार पैदा होती है आशंका, बार-बार मरता है
वंश।

क्या मैं इसी तरह, बिल्कुल बेलाग, यहाँ से
गुजर जाऊँ?
हे ईश्वर! मुझको क्षमा करना, निर्णय
कल लूँगा, जब
निर्णय हो चुका होगा।

 


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